देवशयनी एकादशी क्या है, इसे कब, क्यों और कैसे करें? जानिए इसकी पूरी कहानी।

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    देवशयनी एकादशी क्या है, इसे कब, क्यों और कैसे करें? जानिए इसकी पूरी कहानी। आज हम आपको देवशयनी एकादशी की दिव्य और ज्ञानमयी कथा सुनाने जा रहे हैं। आषाढ़ मास के शुक्ल पक्ष की एकादशी तिथि को देवशयनी एकादशी कहा जाता है। भारत वर्ष मे लोग देव सयानी एकादशी, योगिनी एकादशी, देव सोनी ग्यारस, देवउठनी एकादशी, हरिशयनी एकादशी, आषाढ़ी एकादशी आदि मिलते जुलते नामों से इसको जानना समझना चाहते हैं।

    देवशयनी एकादशी क्या है, इसे कब, क्यों और कैसे करें? जानिए इसकी पूरी कहानी।

    इस एकादशी से भगवान श्री लक्ष्मीनारायण चार माह के लिए शयन करते हैं। चार माह बाद कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की एकादशी के दिन भगवान का पुनः जागरण होता है। इन चार माह के दौरान कोई भी शुभ या मांगलिक कार्य नहीं किए जाते हैं।

    इस दौरान सिर्फ सिद्धि साधना, जप-तप, मंत्र, अनुष्ठान आदि के लिए उपयुक्त समय माना गया है। देवशयनी एकादशी जो कि एक बड़ी एकादशी के रूप में मानी जाती है, इस दिन व्रत, पूजन और दान पुण्य करने का विशेष महत्व है।

    इस साल देवशयनी एकादशी 12 जुलाई 2019 शुक्रवार के दिन है। आपको प्रातः काल शीघ्र उठ कर शुद्ध वस्त्र धारण करके लक्ष्मीनारायण श्री हरि जी का विशेष पूजन अर्चन करना चाहिए।

    शास्त्रों में तप के अंतर्गत व्रत की महिमा भी वर्णित है। जैसे नदियों मे गंगा, प्रकाश तत्वों मे भगवान सूर्य नारायण वैसे ही देवताओं मे सबसे प्रधान देवता भगवान श्री विष्णु जी माने जाते हैं। उसी प्रकार व्रतों मे सबसे महान व्रत एकादशी का व्रत माना गया है।

    एक वर्ष में कुल 24 एकादशी आती हैं। यदि किसी वर्ष अधिक मास आता है या मल मास आता है तो उस वर्ष 26 एकादशी आती है।

    इस व्रत को करने के लाभ क्या है?

    आषाढ़ मास की शुक्ल पक्ष की एकादशी को देवशयनी हरि एकादशी, श्री हरि शयनी एकादशी या पद्मा एकादशी भी कहते हैं। यह एकादशी महान पुण्य को देने वाली है। स्वर्ग तथा मोक्ष को देने वाली है।




    ऐसा माना जाता है कि जो व्यक्ति देवशयनी एकादशी का व्रत रखता है या इस दिन पूजन अर्चन, दान – पुण्य करता है उसे अक्षय अनंत पुण्य फल की प्राप्ति होती है। उसके जन्म जन्मांतर के पाप नष्ट हो जाते हैं और वह सारे पुण्य मे परिवर्तित हो जाते हैं।

    इस व्रत को कैसे करे?

    आप भी देवशयनी एकादशी का व्रत अवश्य करे और इस दिन जल्दी स्नान करके और शुद्ध वस्त्र धारण करके हाथ में जल लेकर संकल्प करे कि आज मैं देवशयनी एकादशी का व्रत करूंगा और भगवान नारायण की प्रसन्नता के लिए पूरे दिन व्रत रह कर के उनकी आराधना करूंगा।

    क्या खाए और क्या नहीं खाना चाहिए?

    इस प्रकार आप संकल्प करे और सुबह से लेकर देर रात तक अन्न को ग्रहण नहीं करना चाहिए। यानि एकादशी की तिथि के दिन अन्न खाना वर्जित माना गया है। इस दिन फल या फलाहार वस्तुओ का सेवन करना श्रेष्ठ माना जाता है।

    देवशयनी एकादशी या कोई अन्य एकादशी के दिन खास बात ध्यान रखने योग्य यह है कि आप चावल का प्रयोग बिल्कुल भी ना करे। एकादशी के दिन घर में चावल बनाना भी नहीं चाहिए और खाना भी नहीं चाहिए। इसलिये चावल से बनी किसी भी वस्तु का प्रयोग एकादशी की तिथि के दिन घर मे नही करना चाहिए।

    भगवान का शयन कैसे कराए?

    आप इस दिन फलाहार करके भगवान् का व्रत करें और नारायण भगवान् का विशेष पूजन अर्चन करे। भगवान् नारायण इस दिन विश्राम करने के लिए क्षीर सागर मे जाएंगे। अगर आपके पास सुविधा हो तो भगवान नारायण को आप शयन भी करवाये।




    एक छोटा सा पलंग भगवान के लिए तैयार करवाये। और उसके ऊपर भगवान् गोपाल कृष्ण जी यानि लड्डू गोपाल जी को निवेदन करे कि प्रभु आपके शयन का समय हो चुका है और सायंकाल उस पलंग के उपर छोटी सी गद्दी लगाकर भगवान गोपाल कृष्ण जी को प्रेम पूर्वक श्रद्धा और भक्ति के साथ शयन कराये।

    ध्यान रखने योग्य बाते

    • शयन करते समय उनके समक्ष तुलसी पत्र अवश्य रखें। इससे आपकी मनोकामनाएं पूर्ण होगी।
    • जो भी आपका भक्ति भाव हो पूरी श्रद्धा से व्रत करे क्योंकि पूजा की शैली इतना महत्व नहीं रखती जितना भक्ति भाव।
    • भजन, कीर्तन आदि भी कर सकते हैं।
    • रात्रि जागरण का भी विशेष महत्व इस दिन माना गया है।

    देवशयनी एकादशी व्रत की कहानी

    देवशयनी एकादशी की कथा जो धर्म ग्रंथों में बतायी गयी है वो इस प्रकार है। वैसे तो अलग अलग कथायें प्रचलित है लेकिन कुछ प्रमुख कथाएं हम आज आपको बताने जा रहे हैं। ये बहुत ही ज्ञानवर्धक और आत्मिक लाभ पहुंचाने वाली कथाएं हैं। आप अंत तक इन्हें अवश्य पढियेगा।

    भविष्य पुराण मे उल्लेख है कि एक बार युधिष्ठिर ने भगवान् कृष्ण से पूछा कि “हे महाराज! यह देवशयन क्या है? जब देवता ही सो जाते हैं तो संसार कैसे चलता है और देवता क्यों सोते हैं?”

    भगवान् श्री कृष्ण ने कहा ने कहा कि राजन, एक बार योग निद्रा ने प्रार्थना की कि भगवन् आप मुझे अपने अंगों मे स्थान प्रदान कीजिए। एक श्रेष्ठ स्थान आप मुझे अपने शरीर मे दीजिए।

    तब भगवान् ने योग निद्रा को नेत्रों मे स्थान देते हुए कहा कि तुम वर्ष मे चार मास मेरे आश्रित रहोगी। ऐसा सुन करके योग निद्रा ने भगवान् के नेत्रों मे प्रवेश कर लिया।

    भागवत महापुराण के अनुसार श्री विष्णु जी ने एकादशी के दिन विकट आतातायी दैत्य शंखासुर का वध किया था। अतः युद्ध मे परिश्रम से थक करके वे क्षीर सागर मे विश्राम करने के लिए चले गए। उनके शयन करने पर सारे देवता सो गए। इसलिए इस तिथि को देवशयनी एकादशी कहा जाता है।

    इस दिन भगवान् मधु सूदन की मूर्ति को शयन कराए। जप, व्रत, तप करे और भगवान् से प्रार्थना करें। जो मनुष्य इस चातुर्मास की देवशयनी एकादशी का विधि पूर्वक व्रत रखता है वह कल्प पर्यन्त विष्णु लोक मे निवास करता है।

    धर्मराज युधिष्ठिर ने कहा कि हे केशव, आषाढ़ मास के शुक्ल पक्ष की एकादशी का नाम क्या है? इस व्रत को करने की विधि क्या है? और किस देवता का पूजन किया जाता है?

    भगवान् कृष्ण ने कहा कि हे युधिष्ठिर, जो ब्रह्मा जी ने नारद जी से कहा था वही मैं तुमसे कहता हूं। एक बार नारद जी ने ब्रह्मा जी से यही प्रश्न किया था। तब ब्रह्मा जी ने उत्तर दिया था कि हे नारद, तुमने कलियुगी जीवों के उद्धार के लिए बहुत ही उत्तम और सर्वश्रेष्ठ प्रश्न किया है।

    देवशयनी एकादशी का व्रत सभी व्रतों मे उत्तम है। इस व्रत को करने से सारे पाप नष्ट हो जाते हैं। जो मनुष्य इस व्रत को नहीं करते हैं वे नर्क मे जाकर के निवास करते हैं।

    इस एकादशी का नाम पद्मा एकादशी है। इसे हरि शयनी या देवशयनी एकादशी भी कहा जाता है। अब मै तुमसे एक पौराणिक कथा कहता हूं। तुम मन लगाकर और ध्यान पूर्वक सुनो।




    सूर्यवंश मे एक मान्धाता नामक चक्रवर्ती राजा हुए। जो सत्यवादी थे और महान प्रतापी थे। वे अपनी प्रजा का अपने पुत्र की भाँति पालन किया करते थे। उनकी सारी प्रजा धन धान्य से भरपूर और सुखी थी।

    उनके राज्य में कभी अकाल नहीं पड़ा। एक समय उस राजा के राज्य में तीन वर्ष तक लगातार बरसात नहीं हुई थी। इस कारण उस राज्य में अकाल पड़ गया। सूखा पड़ गया।

    प्रजा अन्न की कमी के कारण अत्यन्त दुखी हो गयी। अन्न के न होने से राज्य में सारे अनुष्ठान आदि परोपकार के कार्य यज्ञ यज्ञादि सारे कर्म बंद हो गए।

    एक दिन प्रजा ज़न सभी जाकर के राजा के पास निवेदन करते हैं कि हे राजन, पूरे संसार मे, पूरी सृष्टि मे यह सर्वविदित है कि हमारे राज्य मे त्राहि त्राहि मच रही है क्योंकि विश्व मे कहीं पर भी बरसात नहीं हो रही है।

    वर्षा के अभाव मे अकाल पड़ गया है और अन्न उत्पादित नहीं हो रहा है। इसलिये हे राजन, कोई ऐसा उपाय बताइए कि जिससे बरसात हो और हमारे राज्य में अन्न की उत्पत्ति हो जिससे सारी प्रजा का कष्ट दूर हो जाए।

    राजा मान्धाता कहने लगे कि आप लोग ठीक कह रहे हो। क्योंकि वर्षा से ही अन्न की उत्पत्ति होती है। आप लोग वर्षा न होने से अत्यंत दुखी हो गए हो। मै आप लोगों के दुखों को समझता हूं।

    ऐसा कहकर राजा कुछ सेना को साथ मे लेकर के जंगल मे चल दिये। वह अनेक ऋषियों के आश्रम मे भ्रमण करते करते अंत मे ब्रह्मा जी के पुत्र अंगीराज ऋषि के आश्रम मे पहुंचते हैं। उन्होंने घोड़े से उतर कर के सबसे पहले अंगीराज ऋषि को प्रणाम किया।

    ऋषि ने राजा को आशीर्वाद देकर कुशलक्षेम पूछने के पश्चात राजा से पूछा कि तुम यहाँ कैसे आए हों? तुम्हारे आने का क्या कारण है? राजा ने हाथ जोड़कर ऋषि से विनीत भाव मे कहा कि हे भगवन्, हे ऋषिवर, सब प्रकार से धर्म पालन करने पर भी मेरे राज्य मे अकाल पड़ा हुआ है।

    मेरी प्रजा अत्यन्त दुखी हो गयी है। राजा के पापो के प्रभाव से ही प्रजा को कष्ट होता है ऐसा हमारे धर्म ग्रंथों मे लिखा हुआ है। लेकिन जब मै सारे धर्म के अनुसार ही अपना राज्य कर रहा हूं तो मेरे राज्य मे अकाल कैसे पड़ गया है? इस कारण से मुझे बहुत कष्ट हो रहा है।

    मै जानना चाहता हूं कि कौन सा ऐसा कारण बना जिसके कारण मेरी प्रजा मे त्राहि त्राहि मच गयी है। अब मै आपके पास इसी संदेह का निवारण करने के लिए आया हूं। कृपया करके मेरे संदेह को दूर कीजिए। साथ ही प्रजा के कष्ट दूर करने का कोई उत्तम उपाय आप बताइए।

    इतनी बात सुनकर के ऋषि कहने लगे कि हे राजन, इस समय सतयुग चल रहा है और सतयुग को सारे युगों मे उत्तम बताया गया है। चार युगों मे सबसे उत्तम यदि कोई युग है तो वह सतयुग है।

    इस युग मे धर्म के चारों चरण सम्मिलित है। अर्थात इस युग मे धर्म की सबसे अधिक उन्नती है। लोग ब्रह्म की ईश्वर की उपासना करते हैं और केवल उच्च वर्ण के ब्राह्मणों को ही वेद पढ़ने का अधिकार है।

    ब्राह्मण को ही सिद्धि करने का या साधना करने का अधिकार दिया गया है। वेदों मे लिखा गया है कि ब्रह्म वाक्य जनार्दनम यानि ब्राह्मण की वाणी से जो भी वाक्य या शब्द निकालता है उसे जनार्दन का रूप माना गया है।

    कहा गया है कि ब्राह्मण जो है श्रेष्ठ कर्म करता है और उत्तम कर्म करता है और संस्कारवान होता है। वही ब्राह्मण वेद विद्या को पढ़ने वाला और पढ़ाने वाला माना जाता है। इसलिए तपस्या करने का और सिद्धि साधना करने का अधिकार ब्रह्म तत्व जानने वाले व्यक्ति को ही है।

    अतः अन्य पतित व्यक्ति किसी भी प्रकार से तपश्चर्या करता है तो इससे राज्य मे दोष की उत्पत्ति हो जाती है। और यदि आप अपनी प्रजा का हित चाहते हो, अपनी प्रजा की भलाई चाहते हो तो आपके राज्य मे कोई पतित व्यक्ति कोई तपश्चर्या कर रहा है, वेद का पठन पाठन कर रहा है तो उसको आपको रोकना चाहिए।

    यदि वह आपकी बात को नहीं मानता है या जानता है तो आपको उसे दंड दे कर के वेद के पठन पाठन से उसे दूर करना चाहिए। यदि आप ऐसा करते हैं तो निश्चय ही आपके राज्य का सारा दोष दूर हो जाएगा और आपके राज्य मे सभी प्रकार की संपन्नता अवश्य ही आएगी।

    राजा कहने लगे कि हे ऋषिवर यदि मै इस उपाय को करने मे असमर्थ हूं तो मुझे कोई दूसरा उपाय भी आप बताइए। क्योंकि मैं कहां से और कैसे उस पतित व्यक्ति को ढूंढूगा जो वेद पढ़ रहा है या पढ़ा रहा है या तपस्या कर रहा है। इसलिए आप कोई दूसरा अन्य उपाय मुझे बताइए।

    तो ऋषि ने कहा कि हे राजन, ध्यानपूर्वक सुनो। आषाढ़ मास के शुक्ल पक्ष की एकादशी तिथि का नाम हरि शयनी एकादशी है देवशयनी एकादशी है और उस एकादशी का तुम विधिपूर्वक व्रत करो और सारे व्रत का जो पुण्य प्रताप यानि पुण्य फल है वो तुम अपनी प्रजा के लिए समर्पित कर देना।

    इस प्रकार जब आप विधि विधान से इस व्रत को पूर्ण कर लोगे तो निश्चय ही आपके राज्य से सारे कष्ट सारे उपद्रव शांत हो जाएंगे। तुम्हारी प्रजा सुखी हो जाएगी।

    मुनि के इस वचन को सुन कर के राजा अपने नगर को वापिस आया और उसने विधि विधान से हरि शयनी देवशयनी और पद्मा एकादशी का विधिवत व्रत किया और इस व्रत के प्रभाव से राजा के राज्य में बहुत वर्षा हुई। वर्षा के माध्यम से अन्न की उत्पत्ति हुई। साथ ही सारी प्रजा मे खुश हाली आ गयी।

    सारी प्रजा प्रसन्न हो गयी। घर घर में उत्सव मनाया गया। सारी प्रजा मिलकर के हरि शयनी देवशयनी एकादशी का व्रत अनुष्ठान, जप तप पुण्य आदि कर्म करने लगे थे।

    तभी देवशयनी एकादशी का बहुत अधिक वर्णन हुआ। जो कोई भी इस कथा को सुनता है या सुनाता है उसके सारे कष्ट दूर हो जाते हैं और उसके जन्म जन्मांतर के पाप नष्ट हो जाते हैं। और जब पाप नष्ट हो जाते हैं तो उसका भाग्य उदय होता है और जब भाग्य उदय होगा तो जीवन मे सारे सुख आने लगेंगे।

    और सभी प्रकार के सुखों को वो धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष को अंत समय में प्राप्त कर लेगा।

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