कैसे करें नवरात्रि में माँ दुर्गा की पूजा और क्या है इसका व्रत विधान ? (Navratri Vrat | Puja | Vidhan | Katha)

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कैसे करें नवरात्र में माँ दुर्गा की पूजा और क्या है इसका व्रत विधान ? (Navratri Vrat | Puja | Vidhan | Katha) – नवरात्रि में नौ देवियों की साधना और उपासना दो मौसम के मिलने के बीच पड़ने वाले समय में मे की जाती है। यानि जब दो ऋतुएं आपस में मिल रही हो। नवरात्रि वर्ष में दो बार आती हैं, एक आश्विन मास में और दूसरी चैत्र मास में। आश्विन मास के समय मौसम कुछ इस तरह का होता है कि मौसम की गरमाहट हल्की होने लगती है और शीत ऋतु की शीतलता जोर पकड़ने लगती है। जबकि, चैत्र नवरात्रि मे इसका उल्टा होता है।

नवरात्रि व्रत (Navratri Vrat) के दौरान सूक्ष्म दुनिया में कई बदलाव होते हैं। प्रकृति की इस सूक्ष्मता में प्राणों का प्रवाह हवा की तरह बहता है। इसलिए, नवरात्रि के दौरान की गयी उपासना पूजा शरीर और मन को निर्मल करती है और साधक को दैवीय साक्षात्कार तक के अवसर उत्पन्न करती है।

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Navratri Vrat | Puja | Vidhan | Katha

हमारे वेद और पुराणों के अनुसार हमारे शरीर में नौ इंद्रियां बतायी गयी है। इन दिनों एक उपासक का उद्देश्य हर एक एक दिन अपनी इंद्रियों को संयम से वश में करके सामर्थ्यवान बनना होता है। जो साधक अपनी इन्द्रियों को संयम से वश में नहीं कर पाता है वह अपनी शारीरिक ऊर्जा अपनी इंद्रियों के छिद्रों से बहाकर नष्ट करता है।

नवरात्रि काल में देवी उपासना को अधिक बेहतर बनाने के लिए कुछ साधना सूत्रों का पूरी तरह सख्ती और अनुशासन से पालन करना चाहिए। मुख्यतः इसमें व्रत, ब्रह्मचर्य, धरती पर विश्राम व सोना, अपने कार्य स्वयं संपादित करना, नियमित दिनचर्या और अनुशासन में रहना शामिल है।

उपासना इस बहाव को रोकती है और पूरी श्रद्धा और सामर्थ्य से उपासक को अच्छे परिणाम हासिल होने लगते हैं। इसका कारण यह है कि देवी के इन नौ रूपों की साधना से शरीर में प्राण और अंतःकरण के दैवीय तत्व बढ़ने लगते हैं। इनकी उपासना से चेतना मे जड़ समाए हुए दुर्गुण नष्ट हो जाते हैं। इस दौरान आत्म चिंतन जरूर करना चाहिए।

ध्यान उपासक को मातृ सत्ता के स्नेह ऊर्जा की तरफ पहुंचाता है। ध्यान लगाते समय मन को चिंता मुक्त यानि कि विचार शून्य रखना चाहिए। उपवास, धरती पर सोना, खुद को नियमित और अनुशासित रखना, ब्रह्मचर्य का पालन और मन चित्त को निर्मल रखना साधक उपासक को सफलता की ओर ले जाता है।

उपवास का मतलब सिर्फ कम खाना ही नहीं होता। (Navratri Vrat-Fast Doesn’t mean Low Intake Of Food)

उपवास यानि व्रत शरीर और मन को एकीकृत करने की कोशिश होती है। और ऐसी कोशिश या प्रयास समय की किसी भी अवधि के लिए किया जा सकता है चाहे ये अवधि एक या एक से अधिक दिनों की हो या कितने ही माह या वर्ष की हो।

व्रत रखते समय कुछ भी ग्रहण किया जा सकता है, जैसे कि दिन में एक टाईम फलाहार भोजन आदि। इसके पीछे की अवधारणा यह है कि इससे हम खुद को अनुशासित रख पाते हैं और अपनी संकल्प की शक्ति का त्वरित विकास करते हैं। गीता में भगवान् श्रीकृष्ण जी ने राजसी और तामसिक भोजन को वर्जित बताया है इसमे उदाहरण स्वरूप मांस – मदिरा, अंडा, खट्टे तले हुए या बासी भोज्य पदार्थ शामिल हैं।

यह अपेक्षित है कि नवरात्रि व्रत (Navratri Vrat) के समय आप इनका सेवन ना करें। व्रत उपवास के दौरान जो आप धार्मिक अनुष्ठान आदि करते हैं वह भी व्यापक परिधि के अंतर्गत आते हैं। इन क्रिया – कलापों और अनुष्ठानों से शरीर से सभी विषैले तत्वों का बहिर्गमन होता है।

इस दौरान शरीर की सुचारू रूप से शुद्धि के लिए तुलसी मिला जल, अदरक मिश्रित जल या अंगूर लिया जा सकता है। मानसिक आहार के रूप में आप जप, तप, ध्यान साधना, सत्संग, दान आदि मे भाग ले सकते हैं।

जब भी ऋतु परिवर्तन होता है तो निश्चित ही परिवर्तन काल में हमारे शरीर की रोगों से लड़ने वाली प्रतिरोधक क्षमता कमजोर पड़ जाती है। इसलिए नवरात्र काल में हल्का फुल्का पचने वाला भोजन ग्रहण करना चाहिए ताकि शरीर में पर्याप्त ऊर्जा संचित रह सके।

जब भी हम व्रत इत्यादि रखते हैं हमारे शरीर में विषैले तत्वों का बनना बंद हो जाता है। और जो विषैले हानिकारक तत्व उपस्थित होते हैं वो बाहर निकलने शुरू हो जाते हैं। इससे शरीर में आंतरिक रूप से स्फूर्ति आने लगती है।




अधिकांश परिवारों मे बहुत से सदस्य नवरात्र में पूरे नौ दिन व्रत रहते हैं। उचित भोजन की जानकारी ना होने के कारण दो तीन दिन के बाद ही स्वास्थ्य बिगड़ने लगता है। शरीर में पानी की कमी, पाचन खराब होना, सिर दर्द होने लगता है।

व्रत के दिनों में शरीर में पानी की कमी से निजात पाने के लिए तरल पदार्थ ज्यादा लेने चाहिए। नींबू पानी, नारियल पानी, फलों के जूस, छाछ, पानी आदि खूब लेना चाहिए। इससे पानी की कमी दूर होगी, थकावट, आलस भी दूर रहेंगे।

भोजन हल्का ले जिसमे आप साबू दाने की खीर, खिचड़ी सैंधा नमक के साथ ले सकते हैं जिससे बॉडी में तुरंत ऊर्जा का प्रवाह होता है। ताजे फल की चाट आदि दिन में खा सकते हैं। फलाहार में लोकी, उबले आलू ले। दूध और दूध से बनी चीजे आपको अतिरिक्त शक्ति देंगी। कोटू के आटे की रोटी या पूरी कचोरी दही के साथ ले। दही कोटू की गर्मी नष्ट करता है। चाहे तो इसके स्थान पर सिंघाड़े का आटा उपयोग मे लाया जा सकता है जो कि अपेक्षाकृत सुपाच्य होता है।

अगर आप अपने वजन के लिए ज्यादा संवेदनशील हैं तो ताजे फल और सलाद ले सकते हैं। शुगर के मरीजों को भोजन में ज्यादा अन्तर नहीं रखना चाहिए। थोड़ी थोड़ी देर में कुछ लेते रहें ताकि शरीर में ऊर्जा बनी रहे।

नवरात्रि से पूर्व इन बातों का ध्यान है बेहद जरूरी (Navratri Vrat Important Facts) 

नवरात्रि काल शुरू होने वाला है। नौ दिन तक चलने वाले इस पर्व मे माँ दुर्गा के नौ अलग – अलग रूपों की पूजा की जाती है। इस दौरान भक्त उपवास आदि रखते हैं। यदि आप भी नवरात्रि में व्रत उपवास रखना चाहते हैं, तो इन बातों का ध्यान रखें।

अपने घर के पूजन स्थल की पवित्रता और साफ सफाई का शुरुआती ध्यान अवश्य रखें। सफाई के पश्चात अपने घर के मुख्य द्वार के दोनों ओर स्वास्तिक का निशान जरूर बना ले क्योंकि इसे अत्यंत ही शुभ माना जाता है।

घर की उत्तर – पूर्व दिशा देवी देवताओं के लिए मानी गयी है। और इस दिशा मे पॉज़िटिव ऊर्जा समायी होती है। अतः इसी दिशा में माता दुर्गा जी की प्रतिमा या छवि स्थापित करनी चाहिए। माता के समक्ष ज्योति को दक्षिण – पूर्व दिशा मे रखना चाहिए।

नवरात्र में आपकी कुलदेवी भी रखती है मायने (Navratri Vrat And Kuldevi) 

हमारे पूर्वजों ने उपयुक्त स्वजन मुख्य रूप से स्त्रियों को मृत्यु के बाद पूजना शुरू किया ताकि वे दिवंगत आत्माएं अपने कुल की रक्षा करती रहे। अदृश्य शक्तियों से रक्षा और परिवार के प्रयोजन पूरे होते रहे साथ ही ये दिवंगत आत्माएं अपनी वंश बेल को सहायता और संरक्षण देती रहें।

इन प्रयोजनों हेतु पूर्वजों की पूजा का सिलसिला चलता गया और आश्विन मास की नवरात्र में सप्तमी और अष्टमी के दिन कुलदेवी की पूजा के लिए अनिवार्य बना दिया गया। परिवार में होने वाले उत्सव और वैदिक संस्कारों में भी कुलदेवी की पूजा होने लगी।

कुल की देवी परिवार में सुरक्षा का कवच बनाती है जो कि हर बाहरी बाधा और नकरात्मक ऊर्जा के प्रवेश को रोकती है।

कुलदेवी की पूजा का विधान नेगेटिव शक्तियों से रक्षा के साथ कार्यों और उत्सवों के निर्विघ्न समापन के लिए भी होता है। पूजा शुरू होने के बाद किसी आकस्मिक अवसर पर, जगह परिवर्तन पर या व्यवसाय के परिवर्तन या परिचालन पर या किसी भी प्रकार के संकट आने पर लोगों ने कुलदेवी को और अधिक धार्मिक स्थान दिया।




विग्यान में अधिक विश्वास रखने वाले या वैज्ञानिक सोच रखने वाले लोगों ने इन पर ध्यान नहीं दिया। कुलदेवी की आराधना पूजा को छोड़ने के बाद कुछ वर्षो तक तो कोई खास फर्क नहीं पड़ा लेकिन धीरे धीरे समय गुजरने के बाद परिवार की उन्नति धीरे पड़ने लगी और कुलदेवी का सुरक्षा कवच हटने लगा।

बहुत सोचने के बाद भी बरक्कत रुकने के कारण समझ नहीं आते। घर के बड़े वरिष्ठ सदस्यों के साथ विचार विमर्श के बाद ही कुलदेवी पूजन का महत्व समझा जा सकता है।

नवरात्र में भक्ति और रंगों की शक्ति

रंगों का महत्त्व सिर्फ जीवन में ही नहीं अपितु धार्मिक रूप से भी है। पुराणों के अनुसार विभिन्न देवी और देवताओं के लिए विशेष रंग बताए गए हैं। नवरात्र काल में प्रत्येक दिन माँ भवानी के पसंदीदा रंग के वस्त्र पहना कर उनकी उपासना करनी चाहिए।

रंगों का जुड़ाव सिर्फ उत्सव त्योहारों से ही नहीं है वरन् ये रंग हमारे ईष्ट देवी देवताओं से भी सीधे तौर पर संबंध रखते हैं। ऐसा माना जाता है कि कोई ना कोई रंग किसी ना किसी भगवान् को अत्यंत प्रिय होता है। ऐसे में यदि आपको देवी माँ की असीम कृपा चाहिए तो आपको पता होना चाहिए कि किस दिन देवी के कौन से रूप को देवी माँ को किस रंग के वस्त्र धारण कराने चाहिए।



नवरात्र के नौ दिन होते हैं और इन नौ अलग अलग दिनों में माँ को अलग अलग रंग के वस्त्रों से पूजन करने से घर में माँ की कृपा तो बरसती ही है साथ ही सौभाग्य और समृद्धि आती है। आपको इन दिनो खुद काले वस्त्र धारण नहीं करने चाहिए। काले वस्त्र पहनकर पूजा सार्थक नहीं हो पाती है।

  1. नवरात्र की शुरुआत प्रतिपदा से होती है, रोग शोक का विनाश करने वाली हिमालय की पुत्री माँ शैल पुत्री का इस दिन पूजन किया जाता है। नौ देवियों में से सबसे प्रथम रूप इन्ही का है। इस दिन माता शैल पुत्री को श्रंगार हरी साड़ी पहना कर करना चाहिए। इनकी पूजा के समय हमे पीले वस्त्र धारण करने चाहिए।
  2. नवरात्र के द्वितीय दिन माँ ब्रह्मचारिणी का पूजन करना चाहिए। इस दिन माता रानी को नारंगी रंग से श्रंगार करना चाहिए। और उपासक को हरे रंग की पोशाक पहननी चाहिए।
  3. नवरात्र का तृतीय दिवस साहस और शक्ति की देवी माँ चंद्रघंटा का है। इस दिन माँ को सफेद रंग की पोशाक धारण करानी चाहिए। इस दिन साधक के द्वारा भूरे रंग के वस्त्र पहनने से माता प्रसन्न होती है।
  4. नवरात्र का चतुर्थ दिवस माता कूष्मांडा देवी का होता है। भक्तों को लाल रंग की पोशाक से माता का श्रंगार करना चाहिए और स्वयं नारंगी कपड़े पहनकर माता का पूजन करना चाहिए।
  5. पांचवा दिन नवरात्र काल में माता स्कंदमाता जी का होता है। स्कंदमाता मोक्ष और सुख प्रदान करने वाली है। इस दिन उपासक को स्वयं सफेद रंग के कपड़े पहनने चाहिए और माता को नीले रंग के वस्त्र पहनाने चाहिये।
  6. नवरात्र में छठे दिन माता कात्यायनी की पूजा अर्चना की जाती है। इस दिन माता को पीले वस्त्र पहनावे और स्वयं लाल रंग के वस्त्र धारण करें।
  7. नवरात्र की सप्तमी यानि सातवां दिन माँ कालरात्रि के लिए निर्धारित है। इनकी तीन आँखें है, गले में माला, बिखरे हुए बाल और रंग श्याम है इसलिए साधक को माता को नीले रंग के कपड़े पहनाने चाहिए।
  8. अष्टमी के दिन माँ महागौरी की पूजा अर्चना की जाती है। इस दिन व्रत का कुछ लोग अनुष्ठान करते हैं। मोरपंख रंग से इस दिन पूजा अर्चना की जानी चाहिए और खुद गुलाबी रंग के वस्त्र पहनने चाहिए।
  9. नवमी का दिन माँ सिद्धिदात्री का होता है। इस दिन गुलाबी वस्त्र पहनना चाहिए।

नवरात्र व्रत पूजन सामग्री (Navratri Vrat Pujan Samagri)

आश्विन मास की शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा से नवमी तक की तिथियों को नवरात्र कहते हैं। घट स्थापना दुर्गा पूजन सामग्री में –

  • गंगाजल
  • रोली
  • मौली
  • पान
  • सुपारी
  • धूप-बत्ती
  • घी का दीपक
  • फल
  • फूल की माला
  • विप्लवपत्र
  • चावल
  • केले का खम्भा

वन्दनवार नवरात्र व्रत पूजन सामग्री (Vandanvar Navratri Vrat Pujan Samgri)

  • आम के पत्ते
  • चन्दन
  • घट
  • नारियल
  • हल्दी की गांठ
  • पंच रत्न
  • लाल वस्त्र
  • चावल से भरा हुआ पात्र
  • गंगा की मृत्तिका
  • जौ
  • बताशा
  • सुगंधित तेल
  • सिंदूर
  • कपूर
  • पंच सुगंध
  • नैवेद्य के लिए फल

नवरात्र व्रत पंचामृत सामग्री (Navratri Vrat Panchmrut Samgri)

  • दूध
  • दही
  • मधु
  • चीनी
  • गाय का गोबर
  • गौ मूत्र
  • गौ दूध
  • गौ दही
  • गौ घृत
  • दुर्गा जी की स्वर्ण मूर्ति या मिट्टी की मूर्ति
  • कुमारी पूजन के लिए वस्त्र
  • आभूषण तथा नैवेद्य

श्री दुर्गा नवरात्र व्रत विधि (Navratri Vrat Puja Vidhi In Hindi)

इस व्रत में उपवास या फलाहार आदि का कोई विशेष नियम नहीं। प्रातः काल उठकर स्नान करके, मंदिर में जाकर या घर पर ही नवरात्रों में दुर्गा जी का ध्यान करके Navratri Vrat Ki Katha पढ़नी चाहिये।

किसी भी नवरात्रि में आदि शक्ति देवी दुर्गा की पूजा अर्चना की जाती है।

  • लकड़ी के पटरे पर देवी जी की फोटो रखें।
  • इस पटरे को ऊंचा करने के लिए इसके नीचे एक सफेद वस्त्र बिछाए और इसके ऊपर गणेशजी को स्थापित करें।
  • एक जगह चावल की नौ ढेरी और एक जगह लाल रंगे हुए चावलों की 16 ढेरियां बनाए।
  • इस प्रकार नवग्रह और षोडशमातृका को स्थापित करके गणेशजी सहित सबकी पूजा करें।
  • कलश की पूजा करके नौ दिन तक रोज देवी की पूजा करें।
  • जल, मौली, रोली, चावल, सिंदूर और गुलाल, प्रसाद, फल, फूल, धूप दीप जलाकर आरती करनी चाहिए।
  • नौ दिन तक एक समय ध्वजा, ओढ़नी और दक्षिणा चढ़ाकर मिट्टी के मटके को झांझरा पहनाएं।
  • देवी जी के आगे 9 दिन तक रोज ज्योत जगानी चाहिए।
  • किसी ब्राह्मण से नौ दिन तक दुर्गा माँ का पाठ कराके नौ दिन तक कुंवारी कन्याओं और ब्राह्मण को भोजन कराना चाहिए।
  • अष्टमी के दिन देवी माता की कड़ाही करनी चाहिए और हलवा, पूरी और ज्योत जलाकर नौ कन्याओं को सप्रेम भोजन कराना चाहिए।
  • सबको दक्षिणा के साथ पांव छूकर कपड़े दें।
  • जो कन्या रोज जीमती है उसे आठवे दिन साड़ी और ब्लाउज तथा नौ दिनों की दक्षिणा भी देनी चाहिए।
  • सब लड़कियों को टीका लगाकर फेरी करनी चाहिए।

कन्याओं के लिए यह व्रत फलदायी है। श्री जगदम्बा की कृपा से सब विघ्न दूर होते हैं। नवरात्रि व्रत कथा के अंत में “दुर्गा माता तेरी सदा ही जय हो” का उच्चारण करें।

आश्विन शुक्ल अष्टमी को दुर्गा अष्टमी (Durga Ashtami) मानते हैं। इस दिन दुर्गा देवी की पूजा का विधान है। मां भगवती को चने, हलवा, पूड़ी, खीर आदि का भोग लगाया जाता है।

पश्चिम बंगाल में शक्ति को अधिक महत्व दिया जाता है। वहां बहुत उत्सव मनाया जाता है। इस दिन देवी की ज्योति करके कुंवारी कन्याओं को जिमाते है।




अष्टमी (Ashtami) या नवमी के दिन सपरिवार मुख्य पूजा मे नारियल बघारते है। लापसी चावल का भोग लगाते हैं। माताजी के ज्वारे (जौ) चढ़ाते हैं। भोग लगाते हैं। 9 कुंवारी कन्याओं को जिमाते है। उन्हें दक्षिणा भी दी जाती है।

नवरात्र व्रत की कथा (Navratri Vrat Ki Katha)

बृहस्पति जी ने एक बार ब्रह्मा जी से कहा, ब्रह्मन! आप अत्यंत बुद्धिमान सर्वशास्त्र और चारों वेदों को जानने वालों में सबसे श्रेष्ट हैं। इसलिए हे प्रभु! कृपा करके मेरा कथन सुनिये। चैत्र, वैशाख, माघ और आषाढ़ मास के शुक्ल पक्ष में नवरात्र का व्रत और उत्सव क्यों किया जाता है? हे भगवन्! इस व्रत का फल क्या है? किस प्रकार यह व्रत करना उचित है? और पहले इस व्रत को किसने किया? यह सब बातें आप विस्तार पूर्वक बताइए।

बृहस्पति जी का ऐसा प्रश्न सुनकर ब्रह्मा जी बोले, बृहस्पते! प्राणियों का हित करने की इच्छा से तुमने बहुत ही अच्छा प्रश्न पूछा है। जो मनुष्य मनोरथ पूर्ण करने वाली दुर्गा, महादेवी, सूर्य और नारायण का ध्यान करते हैं वे मनुष्य धन्य हैं। यह नवरात्र व्रत सम्पूर्ण कामनाओं को पूर्ण करने वाला है।

 

इसके करने से पुत्र चाहने वाले को पुत्र, धन चाहने वाले को धन, विद्या चाहने वाले को विद्या, सुख चाहने वाले को सुख मिल सकता है। इस व्रत को करने से रोगी मनुष्य का रोगमुक्त होकर स्वस्थ हो जाता है।

जो सुहागन स्त्री भूल से इस व्रत को नहीं करती है वह पति से हीन होकर नाना प्रकार के दुखों को भोगती है।

यदि व्रत करने वाला मनुष्य सारे दिन उपवास न कर सके तो एक समय भोजन करे और उस दिन नवरात्र व्रत की कथा (Navratri Vrat Ki Katha) श्रवण करे। ब्रह्मा जी ने आगे कहा, बृहस्पते! जिसने पहले इस महा व्रत को किया है उसका पवित्र इतिहास मैं तुम्हें सुनाता हूं। तुम सावधान होकर सुनो।

ब्रह्मा जी बोले, एक मनोहर नगर था जिसका नाम पीठत था। वहां पर एक अनाथ नाम का ब्राह्मण निवास करता था। वह भगवती दुर्गा (Durga) का अनन्य भक्त था। सम्पूर्ण सद्गुणों से युक्त मानो ब्रह्मा की सबसे पहली रचना हो। ऐसी यथार्थ नाम वाली कन्या ने उसके यहां जन्म लिया।

जिसका नाम सुमति रखा गया। वह कन्या सुमति अपने घर पर बचपन में अपनी सहेलियों के साथ खेलती हुई इस प्रकार बढ़ने लगी जैसे शुक्ल पक्ष में चंद्रमा की कला बढ़ती है। उसका पिता प्रतिदिन दुर्गा की पूजा (Durga Ki Puja) और हवन किया करता था। उस समय वह भी नियम (Niyam) से वहां उपस्थित हो जाती थी।

एक दिन वह सुमति अपनी सखियों के साथ खेलने लग गई और दुर्गा पूजा (Durga Puja) मे उपस्थित नहीं हुई। उसके पिता को पुत्री की ऐसी असावधानी देखकर क्रोध आया और पुत्री से कहने लगा कि हे दुष्ट पुत्री! आज प्रभात से तुमने भगवती का पूजन (Bhagwati Ka Pujan) नहीं किया इस कारण मैं किसी कुष्ठी और दरिद्र मनुष्य के साथ तेरा विवाह रचा दूंगा।

इस प्रकार क्रोधित पिता की बात सुनकर सुमति को बड़ा ही दुख पहुंचा और पिता से कहने लगी कि हे पिताजी! मैं आपकी पुत्री हूं। मैं आपके सब तरह से अधीन हूं, जैसी आपकी इच्छा हो वैसा ही करो। रोगी, कुष्ठी या और किसी तरह के साथ जैसी तुम्हारी इच्छा हो विवाह कर सकते हो।

होना तो वहीं है जैसा मेरे भाग्य में लिखा है। मेरा तो भाग्य पर पूर्ण विश्वास है। मनुष्य न जाने कितने मनोरथों का चिंतन करता है पर होता वही है जो भाग्य में विधाता लिख कर भेजता है।

जो जैसा कार्य करता है उसको फल भी उसके कर्मानुसार प्राप्त होता है। क्योंकि कर्म करना मनुष्य के हाथ में है और उसका फल देना देवता के हाथ में है।




कन्या की ऐसे निर्भयता पूर्ण वचन सुनकर ब्राह्मण को अत्याधिक क्रोध आया और उसने अपनी कन्या का विवाह एक कुष्ठी के साथ कर दिया और अत्यंत क्रुद्ध होकर पुत्री से कहने लगा कि जाओ! जल्दी जाओ! अपने कर्म का फल भोगो। देखें केवल भाग्य के भरोसे पर रहकर क्या करती हो? पिता के इस प्रकार के कड़वे वचन सुनकर सुमति अपने मन मे विचार लाने लगी कि मेरा बड़ा दुर्भाग्य है जिससे मुझे ऐसा पति प्राप्त हुआ।

इस तरह अपने दुख से दुखी विचार करती हुई वह सुमति अपने पति के साथ वन में चली गई और भयानक वन में कुशा युक्त उस स्थान पर उन्होंने वह रात बड़े कष्ट के साथ बितायी।

उस गरीब बालिका की ऐसी दशा देखकर भगवती पूर्व पुण्य के प्रभाव से प्रकट होकर सुमति से कहने लगी, हे दीन ब्राह्मणी! मैं तुम पर प्रसन्न हूं तुम जो चाहो वरदान मांग सकती हो। मांग लो! मैं प्रसन्न होने पर मनवांछित फल देने वाली हूं।

इस प्रकार भगवती दुर्गा मां (Bhagvati Durga) का वचन सुनकर ब्राह्मणी कहने लगी कि आप कौन हैं जो मुझ पर प्रसन्न हुई हैं? अपनी कृपा दृष्टि से मुझ दिन दासी को कृतार्थ करो। ब्राह्मणी का ऐसा वचन सुनकर देवी कहने लगी कि मैं आदि शक्ति (Aadi Shakti) हूं और मैं ही ब्रह्मा, विद्या और सरस्वती हूं।

मैं प्रसन्न होने पर प्राणियों का दुख दूर कर उनको सुख प्रदान करती हूं। इसलिए हे ब्राह्मणी! मैं तुझ पर तेरे पूर्व जन्म के पुण्य के प्रभाव से प्रसन्न हूं। तुम्हारे पूर्व जन्म की सारी बात बताती हूं सुनो! तू पिछले जन्म में निषाद की स्त्री थी और अति पतिव्रता थी।

एक दिन तेरे पति निषाद ने चोरी की। चोरी करने के कारण तुम दोनों को सिपाहियों ने पकड़ लिया और ले जाकर जेल मे कैद कर दिया और उन लोगों ने तेरे को और तेरे पति को भोजन भी नहीं दिया।

इस प्रकार नवरात्र (Navratri) के दिनों में तुमने न तो कुछ खाया और न जल ही पिया। इसलिए नौ दिनों तक नवरात्र का व्रत (Navratri Ka Vrat) हो गया। हे ब्राह्मणी! उन दिनों जो व्रत किया उस व्रत के ही प्रभाव से मैं प्रसन्न होकर मनवांछित वस्तु दे रही हूँ।तुम्हारी जो इच्छा हो वह मांग सकती हो।

इस प्रकार दुर्गा मां (Durga Maan) के कहे हुए वचन सुनकर ब्राह्मणी बोली कि अगर आप मुझ पर प्रसन्न हैं तो हे दुर्गे! आपको मैं शत शत प्रणाम करती हूं। कृपा करके मेरे पति के कोढ़ को दूर कर दीजिये।

देवी कहने लगी कि उन दिनों में जो तुमने व्रत किया था उस व्रत के एक दिन का पुण्य अपने पति का कोढ़ दूर करने के लिए अर्पण करो। मेरे प्रभाव से तेरा पति कोढ़ से रहित हो सोने के समान शरीर वाला हो जाएगा।

ब्रह्माजी बोले इस प्रकार देवी का वचन सुनकर वह ब्राह्मणी बहुत खुश हुई और और पति को निरोग करने की इच्छा से ठीक है, ऐसे बोली। तब तक उसके पति का शरीर मां भगवती की कृपा से कुष्ठ हीन होकर अति कांतियुक्त हो गया था।

जिसकी कान्ति के सामने चंद्रमा की कान्ति भी धीमी पड़ जाती है। वह ब्राह्मणी पति की मनोहर देह को देखकर देवी को अति पराक्रम वाली समझकर स्तुति करने लगी कि हे दुर्गे! आप दुखों को दूर करने वाली, रोगी मनुष्य को निरोग करने वाली, प्रसन्न होने पर मनवांछित फल देने वाली और दुष्ट मनुष्य का नाश करने वाली हो।

तुम ही सारे जगत की माता और पिता हो। हे अंबे मां! मुझ अपराध रहित अबला का विवाह मेरे पिता ने एक कुष्ठी के साथ करके घर से निकाल दिया।

पिता की निकाली हुई बेटी पृथ्वी पर घूमने लगी। आपने ही मेरा इस आपत्ति रूपी समुन्दर से बाहर निकाला है। हे देवी! मैं आपको बारंबार प्रणाम करती हूं। मुझ दीन की रक्षा करो।

ब्रह्माजी बोले कि हे बृहस्पते! इसी प्रकार उस सुमति ने मन से देवी की बहुत स्तुति (Stuti) की। उससे की हुई स्तुति (Stuti) सुनकर देवी को बहुत संतोष हुआ और ब्राह्मणी से कहने लगी कि हे ब्राह्मणी! तुम्हारे उद्दालक नाम का एक अति बुद्धिमान, धनवान, कीर्तिमान और जितेन्द्रिय पुत्र शीघ्र ही होगा।

ऐसा कहकर वह देवी उस ब्राह्मणी से फिर कहने लगी कि हे ब्राह्मणी और जो कुछ तेरी इच्छा हो वही मनोवांछित फल मांग सकती हो। दुर्गा (Durga) मां के ऐसे कहे वचन सुनकर सुमति बोली कि हे भगवती दुर्गे! यदि आप मेरे ऊपर प्रसन्न हैं तो कृपा कर मुझे नवरात्र व्रत करने की विधि (Navratri Vrat Karne Ki Vidhi) सविस्तार बताइए।




हे दयावती! जिस विधि से नवरात्र व्रत (Navratri Vrat) करने से आप प्रसन्न होती है उस विधि और उसके फल को भी विस्तार से बताने की कृपा करें।

ब्राह्मणी के ऐसे वचन सुनकर दुर्गा मां कहने लगी कि हे ब्राह्मणी! मैं तुम्हारे लिए सम्पूर्ण पापों को दूर करने वाली नवरात्र व्रत की विधि (Navratri Vrat Ki Vidhi) बताती हूं। जिसको सुनने से तमाम पापों से छूटकर मोक्ष की प्राप्ति होती है। तुम इसे ध्यानपूर्वक सुनो।

आश्विन मास के शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा से लेकर नौ दिन तक विधिपूर्वक व्रत करें। यदि दिन भर का व्रत न कर सकें तो एक समय का भोजन करें। ब्राह्मणों से पूछकर घट स्थापना करे। और वाटिका बनाकर उसको प्रतिदिन जल से सींचे। महाकाली, महालक्ष्मी, और महासरस्वती की मूर्तियां बनाकर उनकी नित्य प्रति विधिपूर्वक पूजा अर्चना करे।

पुष्पों से विधिपूर्वक अर्ध्य दें। बिजौरा के फूल से अर्ध्य देने से रूप की प्राप्ति होती है। जायफल से कीर्ति, दाख से कार्य की सिद्धि होती है। आंवले से सुख और केले से भूषण की प्राप्ति होती है। इस प्रकार फलों से अर्ध्य देकर यथाविधि हवन करें।

खांड, घी, गेहूं, शहद, जौ, तिल, बिम्ब, नारियल, दाख और कदंब इन सब सामग्रियों से हवन संपन्न करें। गेहूं का हवन करने से लक्ष्मी प्राप्ति होती है। खीर व चम्पा के फूलों से धन और पत्तो से तेज और सुख प्राप्त होता है। आंवले से कीर्ति और केले से पुत्र की प्राप्ति होती है।

कमल से राज सम्मान और दाखों से सुख सम्पत्ति की प्राप्ति होती है। खांड, घी, नारियल, शहद, जौ और तिल इनसे तथा फलों से होम करने से मनोवांछित वस्तु की प्राप्ति होती है।

व्रत करने वाला मनुष्य इस विधि से हवन कर आचार्य को अत्यंत नम्रता के साथ प्रणाम करे और यज्ञ की सिद्धि के लिए उसे दक्षिणा दे।

इस व्रत को पहले बतायी हुई विधि के अनुसार जो कोई करता है उसके सब मनोरथ पूर्ण हो जाते हैं। इसमे तनिक भी शंका नहीं है। इन नौ दिनों में जो कुछ भी दान दिया जाता है उसका करोड़ों गुना फल मिलता है।

इस नवरात्र के व्रत (Navratri Ke Vrat) करने से ही अश्वमेघ यज्ञ का फल मिलता है। हे ब्राह्मणी! इस सम्पूर्ण कामनाओं को पूर्ण करने वाले उत्तम व्रत को तीर्थ मंदिर अथवा घर मे ही विधिपूर्वक करें।

ब्रह्माजी आगे बोले, हे बृहस्पते! इस प्रकार ब्राह्मणी को व्रत की विधि (Navratri vrat ki vidhi) और फल बताकर देवी अंतर्ध्यान हो गई। जो मनुष्य या स्त्री इस व्रत को भक्तिपूर्ण करते हैं वह इस लोक में सुख पाकर अंत में मोक्ष प्राप्त करते हैं।

इसलिए हे बृहस्पते! इस व्रत का माहात्म्य मैंने तुम्हारे लिए बतलाया है। ब्रह्मा जी का कथन सुनकर बृहस्पति जी आनंद विभोर हो उठे। और ब्रह्मा जी से कहने लगे, हे ब्रह्माजी! आपने मुझ पर अति कृपा की है जो आपने मुझे अमृत के समान इस नवरात्रि व्रत (Nvratri Vrat) का माहात्म्य सुनाया।

हे प्रभो! आपके बिना और कौन इस महात्म्य को सुना सकता है। ऐसे बृहस्पति जी के वचन सुनकर ब्रह्माजी बोले, हे बृहस्पते! तुमने सब प्राणियों का हित करने वाले इस अलौकिक व्रत को पूछा है इसलिए तुम धन्य हो। यह भगवती शक्ति सम्पूर्ण लोगों का पालन करने वाली है इस महादेवी के प्रभाव को कौन जान सकता है।

अशोक व्रत (Ashok Vrat)

यह व्रत आश्विन मास की शुक्ल प्रतिपदा को किया जा सकता है। इस व्रत में अशोक के वृक्ष की पूजा की जाती है। अशोक के पेड़ की घी, गुड़, रोली, कलावा आदि से पूजा की जाती है। और जल से अर्ध्य देते हैं।

यह व्रत 12 वर्ष तक करना पड़ता है। उद्यापन (Udyapan) के समय सोने का वृक्ष बनवाकर कुल गुरु से पूजन कराकर उन्हें समर्पित कर देते हैं। अशोक व्रत (Ashok Vrat) को करने वाले स्त्री पुरुष शिवलोक को प्राप्त होते हैं।

दुर्गा अष्टमी (Durga Ashtami)

दुर्गा दुर्गुणों का नाश करने वाली मानी गई है। जिस प्रकार शंकर को कामदेव को भस्म करते हुए दिखाया जाता है उसी प्रकार शिव की शक्तियां भी आत्म ज्ञान के तीसरे नेत्र के द्वारा महिषासुर जैसे पुरुषों की दृष्टि एवं कामी प्रवृत्ति को समाप्त कर सकती है।

दुर्गा अष्टमी आश्विन मास की शुक्ल पक्ष की अष्टमी को दुर्गा अष्टमी (Durga Ashtami) के रूप में मनायी जाती है। इस दिन दुर्गा देवी की पूजा की जाती है। भगवती को उबले हुए चने, हलवा, पूरी, खीर आदि का भोग लगाया जाता है और कंजक जिमाई जाती है।




पश्चिम बंगाल में दुर्गा मां को अधिक मान्यता देते हुए वहां बहुत बड़े उत्सव का आयोजन किया जाता है।

दुर्गा के नौ रूपों की कथा (Nine Stories Of Navratri Vrat Katha)

शास्त्रों के मुताबिक दुर्गा मां के नौ रूप हैं इन नौ रूपों की कथा का वर्णन नीचे दिया जा रहा है।

महाकाली की कथा (Mahakali Ki Katha) :-

एक समय की बात है कि संसार में प्रलय आ गयी और चारों ओर पानी ही पानी नजर आने लगा। उस समय भगवान् विष्णु की नाभि से कमल की उत्पत्ति हुई। उस कमल से ब्रह्मा जी की उत्पत्ति हुई।

इसके अतिरिक्त भगवान् विष्णु के कानों से कुछ मैल निकला था। उस मैल से मधु और कैटभ नाम के दो राक्षस बने। मधु और कैटभ ने जब चारों ओर देखा तो ब्रह्मा जी को देखकर उन्हें अपना भोजन बनाने की सोचने लगे और उनके पीछे दौड़ पड़े।

तब ब्रह्माजी ने भयभीत होकर भगवान् विष्णु की स्तुति की। ब्रह्माजी की स्तुति से विष्णु भगवान् की नींद खुल गई और उनकी आंखो में निवास करने वाली महामाया लोप हो गयी।

भगवान् विष्णु के जागते ही मधु कैटभ उनसे युद्ध करने लगे। कहा जाता है कि यह युद्ध 5000 वर्षों तक चला था। अंत में महामाया ने महाकाली (Mahakali) का रूप धारण कर इन दोनों राक्षसों की बुद्धि को बदल दिया।

वे दोनों असुर भगवान् विष्णु से बोले हम तुम्हारे युद्ध कौशल से बहुत प्रसन्न हैं, तुम जो चाहो वर मांग लो। भगवान् विष्णु ने कहा कि यदि तुम कुछ देना ही चाहते हो तो ये वर दो कि दैत्यों का नाश हो। उन्होंने तथास्तु कह दिया। इस प्रकार महाबली दोनों दैत्यों का नाश हो गया।

महालक्ष्मी की कथा (Mahalakshmi Ki Katha)

प्राचीन कालीन समय में महिषासुर नामक एक दैत्य था। उसने सभी राजाओं को परास्त करके पृथ्वी और पाताल पर अधिकार कर लिया।

स्वर्ग पर अधिकार करने के लिए उसने देवताओं पर चढाई कर दी। देवताओं ने अपनी रक्षा के लिए भगवान् विष्णु और भगवान् शंकर से प्रार्थना की।

उनकी प्रार्थना से भगवान् शंकर और भगवान् विष्णु प्रसन्न हुए। उनके शरीर से एक तेज पुंज निकला जिसने महालक्ष्मी का रूप धारण कर लिया। इन्हीं महालक्ष्मी ने महिषासुर दैत्य को युद्ध में परास्त कर देवताओं के कष्टों का निवारण किया।

चामुण्डा देवी की कथा ( Chamunda Devi Ki Katha)

संसार में दो राक्षसों की उत्पत्ति हुई थी। जिनका नाम शुम्भ और निशुंभ था। वे इतने शक्तिशाली थे कि पृथ्वी और पाताल के सब राजा उनसे पराजित हो गए। अब उन्होंने स्वर्ग पर चढाई कर दी।

देवताओ ने भगवान् विष्णु की स्तुति की। उनकी इस प्रार्थना अनुनय से विष्णु जी के शरीर से एक ज्योति प्रकट हुई जो चामुण्डा (Chamunda) के नाम से प्रसिद्ध हुई।

वह बहुत ही सुन्दर थी। उनके रूप सौंदर्य से प्रभावित होकर शुम्भ निशुंभ ने सुग्रीव नाम का एक दूत देवी के पास भेजा कि वह हम दोनों में से किसी एक के साथ विवाह कर ले। उस दूत को देवी ने यह कहकर वापिस भेज दिया कि जो मुझे युद्ध में परास्त करेगा मेरा विवाह उसी के साथ होगा।

दूत के मुँह से यह समाचार सुनकर उन दोनों दैत्यों ने पहले उन दोनों दैत्यों ने पहले युद्ध के लिए अपने सेनापति धूम्राक्ष को आक्रमण के लिए भेजा। धूम्राक्ष सेना सहित मारा गया। इसके बाद चण्ड मुण्ड लडने आए।

चण्ड मुण्ड भी देवी के हाथो मारे गए। अब रक्तबीज लड़ने आया। उसके शरीर से रक्त की एक बूंद जमीन पर गिरने से एक वीर पैदा हो जाता था। इस पर देवी ने रक्तबीज के शरीर से निकले खून को अपने खप्पर मे लेकर पी लिया।

इस प्रकार रक्तबीज भी मारा गया। अंत में शुम्भ निशुंभ लड़ने आए और देवी के हाथों मारे गए। सभी देवता दैत्यों की मृत्यु से बहुत ही प्रसन्न हुए।

योगमाया की कथा (Yogmaya Ki Katha)

जब कंस ने देवकी के 6 पुत्रों का वध कर दिया तो सातवें गर्भ के रूप में शेषनाग के अवतार बलराम जी आए जो रोहिणी के गर्भ में स्थानांतरित होकर प्रकट हुए।

तब आठवें गर्भ में श्री कृष्ण भगवान् प्रकट हुए। उसी समय गोकुल मे यशोदा जी के गर्भ से योगमाया (Yogmaya) ने जन्म लिया। वसुदेव जी कृष्ण को गोकुल छोड़ आए और इसके बदले में योगमाया को वहां से ले आए।

जब कंस ने कन्या रूपी योगमाया के विषय में जाना तो इसे भी पटक कर मारना चाहा तो वह उसके हाथ से छूटकर आकाश में चली गई और देवी का रूप धारण कर लिया।

आगे चलकर इसी योगमाया ने कृष्ण के हाथों योगविद्या और महाविद्या बनकर कंस, चाणूर आदि शक्तिशाली असुरों को परास्त करके उनका संहार किया।




रक्तदंतिका की कथा (Rakt Dantika Ki Katha)

वैप्रचिति नाम के असुर ने बहुत से कुकर्म करके पृथ्वी वासियों और देवलोक मे देवताओं का जीवन दुर्लभ कर दिया। देवताओं और पृथ्वी वासियों की प्रार्थना पर दुर्गा देवी ने रक्तदंतिका नाम से अवतार लिया।

देवी ने वैप्रचिति आदि असुरों का रक्तपान करके मान मर्दन कर डाला। देवी के रक्त पान करने के कारण इसका नाम रक्तदंतिका पड़ गया।

शाकुम्भरी देवी की कथा (Shakumbhari Devi Ki Katha)

एक बार की बात है जब पृथ्वी पर सूखा पड़ने के कारण सौ वर्ष तक वर्षा नहीं हुई थी। चारो ओर सूखे के कारण हाहाकार मच गया। वनस्पति सूख गई।

उस समय वर्षा के लिए ऋषि मुनियों ने मिलकर भगवती देवी की उपासना की। तब माँ जगदंबा ने पृथ्वी पर शकुम्भरी नाम से स्त्री रूप में अवतार लिया और उनकी कृपा से जल की वर्षा हुई। इससे पृथ्वी के समस्त जीव जंतुओं और वनस्पतियों को जीवन जीने का दान मिला।

देवी दुर्गा की कथा (Durga Ji Ki Katha)

एक समय की बात है जब दुर्गम नाम के राक्षस के अत्याचार इतने बढ़ गए कि पृथ्वी वासियों में, पाताल निवासियों और देवताओं में कोहराम मच गया। ऐसी स्थिति में विपत्ति के समय में भगवान् की शक्ति दुर्गा ने अवतार लिया।

दुर्गा (Durga) ने दुर्गम राक्षस का संहार करके पृथ्वी पर रहने वालों और देवताओं पर आने वाली इस विपत्ति को दूर किया। दुर्गम राक्षस को मारने के कारण ही तीनों लोकों में इनका नाम दुर्गा देवी (Durga Devi) के नाम से प्रसिद्ध हो गया।

भ्रामरी देवी की कथा (Bhramri Devi Ki Katha)

एक समय की बात है जब अरुण नाम के असुर के अत्याचारों की सीमा इतनी बढ़ गयी कि वह स्वर्ग में रहने वाली देव पत्नियों के सतीत्व को नष्ट करने का कुप्रयास करने लगा। अपने सतीत्व की रक्षा के लिए देव पत्नियों ने भौरों का रूप धारण कर लिया।

वे दुर्गा देवी से अपने सतीत्व की रक्षा के लिए प्रार्थना करने लगी। देव पत्नियों को इतना दुखी देखकर उनका उद्धार करने के लिए दुर्गा ने भ्रामरी (Bhramri) का रूप धारण कर अरुण असुर का सेना सहित संहार किया।

चण्डिका देवी की कथा (Chandika Devi Ki Katha)

एक बार पृथ्वी लोक में चंड और मुंड नामक दो राक्षस पैदा हुए। इन दोनों राक्षसों ने पृथ्वी लोक, पाताल लोक और देव लोक पर अपना अधिकार कर लिया।

इस पर देवताओं ने दुखी होकर मातृ शक्ति देवी का स्मरण किया। देवताओं की स्तुति से प्रसन्न होकर देवी ने चंड – मुंड राक्षसों का विनाश करने के लिए चण्डिका (Chandika) के रूप में अवतार लिया।

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